मुश्किल से आधे मिनट का भी नहीं है वह वीडियो पर फेसबुक पर उसे देखकर मैं सहम -सा गया था । वीडियो आगरा का है। सत्ताईस वर्षीय कैप्टन शुभम गुप्ता का गृह स्थान है आगरा।जम्मू-कश्मीर के राजौरी में आतंकवादियों से हुई मुठभेड़ में इस युवा जांबाज ने अपना सर्वोच्च बलिदान देकर अपनी माटी का कर्ज चुकाया था । उनका शव अभी पहुंचा नहीं था। पर उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री पहुंच गये थे। उनके साथ स्थानीय विधायक भी थे। घर में कुहराम मचा हुआ था। कैप्टन शुभम की बिलखती मां संभाले नहीं संभल रही थीं। और मंत्री जी उन्हें शासन की ओर से पचास लाख रुपए का चैक देने पर आमादा थे। वे चैक ही नहीं देना चाह रहे थे, दुखिया मां को चैक देते हुए एक फोटो भी खिंचवाना चाहते थे। मंत्री जी वह चैक मां के हाथ में देना चाहते थे और मां के हाथ मातम मना रहे थे। वे चैक दे पाये या नहीं, पता नहीं, पर मां को जबरन चैक देने की कोशिश का वह वीडियो अवश्य वायरल हो गया। बिलखती मां यह कहती ही रह गयी, “मेरी प्रदर्शनी मत लगाओ, मुझे मेरा बेटा लौटा दो।”
इससे पूर्व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री यह घोषणा कर चुके थे कि शहीद कैप्टन को इस राशि के अलावा उनके परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी भी दी जायेगी। शहीदों के बलिदान की कोई कीमत नहीं लगायी जा सकती, फिर भी जितनी कीमत लगे उतनी कम होती है। सवाल इस सहायता का नहीं है, सवाल उस भद्दे प्रदर्शन का है जो इस सहायता के साथ जुड़ गया है। शव पहुंचने से पहले चैक पहुंचना क्यों ज़रूरी था? चैक को मां के हाथों में सौंपना भी मंत्री महोदय को क्यों ज़रूरी लगा? और क्यों ज़रूरी था उसका वीडियो बनाया जाना? मंत्री महोदय वीडियो क्यों बनवाना चाहते थे, पता नहीं, पर आज यह वीडियो कुल मिला कर एक शर्म का प्रतीक बनकर रह गया है!
पता नहीं क्या तर्क है इसके पीछे, पर जब भी कोई ऐसी घटना घटती है जिसमें जान-माल की हानि होती है, सरकार मुआवजे की घोषणा तत्काल कर देती है। मुआवजा देना ग़लत नहीं है, पर मुआवजे की प्रदर्शनी लगाना किसी भी दृष्टि से सही नहीं कहा जा सकता।
आखिर ऐसी घोषणाओं का मतलब क्या है? आगरा की यह घटना इसका जो मतलब समझाती है, वह यही है कि ऐसी घोषणाएं करके और ऐसी प्रदर्शनी लगाकर सरकारें संवेदनशीलता का नहीं , संवेदनहीनता का परिचय देती हैं। कैप्टन शुभम गुप्ता के बलिदान पर हर भारतीय को नाज है, लेकिन उनके बलिदान का बदला चुकाने की यह भद्दी प्रदर्शनी हर भारतीय का सिर शर्म से नीचा कर देने वाली है।
इस मुआवजे या सहायता के पीछे भावना सही भी हो सकती है,पर जो संवेदनहीनता इसमें दिखाई देती है वह शर्मनाक ही कहलायेगी। पूछा जाना चाहिए कि वह चैक बलिदानी सैनिक की मां को तभी देना क्यों जरूरी समझा गया ? और मंत्रीजी को यह क्यों लगा कि इस अवसर का चित्र भी होना चाहिए?
इन प्रश्नों का उत्तर यह हो सकता है कि शासन यह संदेश देना चाहता है कि वह बलिदानियों का सम्मान करता है। पर जो संवेदनहीनता इसमें झलक रही है, वह स्पष्ट बताती है कि कहीं न कहीं शासन इसे एक रस्म अदायगी के रूप में ही देखता है।
बरसों पुरानी एक घटना याद आ रही है। शायद ओडिशा विधानसभा की है यह घटना। एक आदिवासी युवती के साथ बलात्कार के मामले पर चर्चा चल रही थी । मंत्री जी ने अपना वक्तव्य देते हुए पीड़िता को एक राशि दिए जाने की घोषणा की। जब मामले की गंभीरता को रेखांकित करते हुए विपक्ष के एक सदस्य ने कहा कि पीड़िता के साथ एक बार नहीं, दो बार बलात्कार हुआ है तो मंत्री महोदय ने सहज ही कह दिया, ‘तो फिर हम मुआवजा दुगना कर देंगे।’ स्पष्ट है मंत्री जी की दृष्टि में, और शासन की दृष्टि में भी , आदिवासी युवती के साथ बलात्कार की कीमत कुछ रुपए ही थी। उन्हें नहीं लगा कि मामला एक युवती के साथ बलात्कार का नहीं, समूची नारी-शक्ति के अपमान का है और इस अपमान को रुपयों से नहीं नापा जा सकता। इस मामले में सवाल एक बीमार मानसिकता का भी था, जिसमें नारी की अस्मिता दांव पर लगी थी। मुझे बलात्कार के मुआवजे की घोषणा करने वाले मंत्री महोदय और शहीद की मां को चैक देते हुए फोटो खिंचवाने की मनोवृति वाले मंत्रीजी की मानसिकता में कोई अंतर नहीं दिखाई दे रहा।
की। नेता मां-बाप से मिलने जाता है तो कैमरामैन उसके साथ होता है, मंदिर जाता है तो उससे पहले फोटोग्राफर वहां पहुंचा होता है। मीडिया वालों की विवशता तो एक सीमा तक समझ आती है, पर हमारे नेता यह क्यों भूल जाते हैं कि उन्हें समाज के सामने एक उदाहरण पेश करना होता है? उनसे अपेक्षा होती है कि वह संवेदनशीलता और संयम का परिचय देंगे। ऐसे में जब आगरा में उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री की प्रचार पाने की भूख का उदाहरण सामने आता है तो यह सवाल तो उठता ही है कि हमारी राजनीति इतनी निर्मम क्यों होती जा रही है? बेटा खो चुकी मां के हाथों में पचास लाख रुपए का चैक थमाने वाली मानसिकता पर सवालिया निशान तो लगेगा ही। पर उत्तर कौन देगा?