मुंबई। ‘फिर एक बार मोदी सरकार’ और ‘अबकी बार 400 पार’ के नारों के साथ देश में नयी सरकार का गठन हो गया है। सरकार नयी तो है इसमें कोई संदेह नहीं, पर सत्तारूढ़ पक्ष द्वारा कोशिश यही बताने की हो रही है कि कहीं कुछ बदला नहीं है, कल जो सरकार थी वही आज भी है और कल भी वही रहेगी– मोदी सरकार ।कारपोरेट जगत की परिपाटी के अनुसार नयी सरकार को ‘मोदी 3.0’ कहा जा रहा है। यह सही है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में ही नयी सरकार बनी है, पर सही यह भी है कि यह सरकार मोदी या भाजपा की नहीं बीजेपी के नेतृत्व वाली मिली-जुली सरकार है। 18 वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव-परिणाम स्पष्ट बता रहे हैं कि मतदाता ने भाजपा को लोकसभा में सबसे बड़ा दल तो बनाया है, पर इतना बड़ा भी नहीं कि उसका एकछत्र राज हो सके। कहने को तो पिछली दो सरकारें भी एनडीए की मिली- जुली सरकारें ही थीं, पर बाकी दलों पर भाजपा की अनुकंपा वाली स्थिति थी। इस बार ऐसा नहीं है। तेलुगु देशम पार्टी (टी डी पी) और जनता दल यूनाइटेड (जे डी यू) की ‘अनुकम्पा’ के बिना भाजपा का मोदी 3.0 चल नहीं सकता। इसीलिए ऐसा माना जा रहा है कि अब भाजपा की जोर-जबरदस्ती नहीं चलेगी। गठबंधन धर्म का मतलब ही यही है सभी घटक दल एक-दूसरे का सम्मान करें! वर्चस्व तो बड़े दल का रहेगा पर दादागिरी किसी की नहीं चलेगी।
देश में गठबंधन सरकारों का सिलसिला बहुत पुराना है। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जब स्वतंत्र भारत की पहली सरकार बनी थी तो उन्होंने स्वेच्छा से कांग्रेस से इतर दलों के नेताओं को अपनी सरकार का हिस्सा बनाया था। बाबासाहेब आंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेता इसी नीति के तहत तत्कालीन सरकार का हिस्सा बने थे, और तब तक बने रहे, जब तक उन्हें लगा कि बहुमत वाली कांग्रेस उन पर निर्णय थोप नहीं रही।
बाद में भी कई गठबंधन सरकारे देश में बनी हैं। नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार मिली- जुली सरकारों के अच्छे उदाहरणों में गिनी जाती हैं। वाजपेयीजी ने तो अपनी गठबंधन सरकार की सफलता के लिए कश्मीर और अयोध्या जैसे विवादित मुद्दों को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया था। ऐसा समझौता गठबंधन की सरकार की सफलता का एक आधार होता है। सभी घटकों की विचारधारा को सम्मान मिले, इसे ध्यान में रखकर ही गठबंधन सरकारों में अक्सर सहमति के आधार पर न्यूनतम कार्यक्रम तय किए जाते हैं। नयी सरकार ने अभी तक ऐसा कोई कार्यक्रम तय नहीं किया है। संभव है अंदरखाने में इस संदर्भ में कोई बातचीत हुई हो। पर नीतियों के बारे में सामान्य सहमति गठबंधन सरकार की सफलता की एक शर्त है, इसे भुलाया नहीं जाना चाहिए।
आदर्श स्थिति तो यह है कि गठबंधन ऐसे दलों के बीच में हो जिनकी बुनियादी नीतियों में कोई समानता हो। पर अक्सर ऐसा होता नहीं। अक्सर गठबंधन का आधार सत्ता में हिस्सेदारी ही होता है। हैरानी तो इस बात पर भी होती है कि अक्सर एक-दूसरे के धुर विरोधी सत्ता के ‘फेविकोल’ से जुड़ जाते हैं। मौजूदा सरकार की ही बात करें, भाजपा के शीर्ष नेताओं ने नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू को क्या-क्या नहीं कहा, और इन दोनों ने भी भाजपा के नेतृत्व को कब बख्शा? इस सबके बावजूद आज यह सब सत्ता में भागीदारी कर रहे हैं। दोनों ही तरफ से पिछले व्यवहार के लिए किसी प्रकार का खेद प्रकट नहीं किया गया है, और न यह कहा गया है कि उनसे कुछ ग़लती हुई थी। आदर्श स्थिति तो यह है कि सत्ता के लिए गठबंधन का हिस्सा बनने वाले अपने मतदाताओं से क्षमा मांग कर ही ऐसा करें। पर आदर्श वास्तविकता कब होते हैं? हमारे राजनेता गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर हैं और यह भी समझते हैं कि जनता की याददाश्त बहुत कमज़ोर होती है, मतदाता अगले चुनाव आने तक सब कुछ भूल जायेगा।
बहरहाल, कभी-कभी गठबंधन सरकारें एक आवश्यकता, या कहना चाहिए विवशता, भी बन जाती हैं। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि बड़ा घटक दल छोटे के विचारों और भावनाओं का सम्मान करेगा। अब सवाल यह उठता है कि क्या हमारे वर्तमान सरकार में ऐसा कुछ होते हुए दिख रहा है। कहा जा सकता है कि अभी बहुत जल्दबाजी होगी इस संदर्भ में कोई निष्कर्ष निकालने में। लेकिन जिस तरह से मंत्रिमंडल का गठन हुआ है, और जिस तरह सभी महत्वपूर्ण मंत्रालयों में पिछले मंत्रियों को ही बिठाया गया है, और जिस तरह पहले सौ दिन के कार्यक्रम घोषित किये जा रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि भाजपा इस सरकार को पिछली दो सरकारों की अगली कड़ी के रूप में ही दिखाना चाहती है–इसीलिए एनडीए सरकार के बजाय ‘मोदी 3.0’ सरकार कहने पर जोर दिया जा रहा है। यह सच है कि मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं, और इस दृष्टि से वह नेहरू के बाद ऐसा कर पाने वाले पहले व्यक्ति बन गये हैं, पर इस बात को भी समझा जाना चाहिए की तीसरी बार सत्ता में आने के लिए मोदी जी की भाजपा को पिछली दो बार से कम सफलता मिली है– संसद में भाजपा के सांसदों की संख्या कम हुई है! इसका सीधा-सा मतलब है मतदाताओं में प्रधानमंत्री मोदी की स्वीकार्यता कम हुई है– यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि भाजपा ने यह चुनाव ,और पिछले दो चुनाव भी, मुख्यत: प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर ही लड़े हैं। सफलता और असफलता दोनों में उनकी भूमिका सर्वाधिक रही है।
यह सारी बातें इस ओर संकेत कर रही हैं कि नयी सरकार की सफलता के लिए गठबंधन धर्म का निर्वाह अत्यंत आवश्यक है। यह सही है कि लोकसभा में भाजपा सांसद प्रचुर संख्या में हैं, पर चूंकि सत्ता मिली-जुली सरकार की है, इसलिए सभी घटक दलों को मिल-जुल कर अपनी भूमिका निभानी होगी। प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली को देखते हुए यह आशंका होनी ग़लत नहीं होगी कि घटक दलों में कुछ टकराव हो सकता है। पर कोशिश होनी चाहिए कि ऐसा टकराव न हो, एक-दूसरे की भावनाओं और विचारों का सम्मान हो।
यहीं यह बात समझनी भी ज़रूरी है कि प्राप्त वोटों की दृष्टि से देखें तो पिछली दो बार की तुलना में इस बार प्रधानमंत्री मोदी को अपेक्षाकृत कम वोट मिले हैं। जनतांत्रिक मूल्यों का तकाज़ा है कि इस स्थिति को नज़र अंदाज न किया जाये। वहीं यह बात भी समझनी होगी कि मतदाता ने सिर्फ सरकार ही नहीं चुनी, विपक्ष भी चुना है। जनतंत्र की सफलता का आकलन इस स्थिति की स्वीकार्यता में निहित है। विपक्ष का दायित्व बनता है कि वह सत्तारूढ़ पक्ष को मिले जन-समर्थन का सम्मान करें। और सत्तारूढ़ पक्ष के लिए भी यह जरूरी है कि वह विपक्ष की महत्ता को नकारे नहीं। सत्तारूढ़ पक्ष को यह भी समझना होगा कि विपक्ष को मिले वोटो की संख्या उसे मिले वोटों से कहीं कम नहीं है। इसीलिए दोनों पक्षों को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। फिर एक बार भाजपा की सरकार तो बन गयी है पर यह मोदी सरकार ही नहीं है– गठबंधन की सरकार भी है। वैसे भी, दलीय व्यवस्था वाले जनतंत्र में दल का महत्व व्यक्ति विशेष के महत्व से कम नहीं होता। हमें कुछ ऐसा करना होगा कि दलों के नाम पर वोट पाने वाले नेता, विचारों की राजनीति की महत्ता को समझें। पलटी खाने वाली राजनीति और पलटी खाने वाले राजनेता हमारे जनतंत्र को कमज़ोर बना रहे हैं।